प्रशांत किशोर अपनी पार्टी जन सुराज के साथ बिहार चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं.
इसकी तैयारी वो बीते तीन सालों से कर रहे हैं. बिहार बदलाव सभा के ज़रिए वो बिहार के लोगों के बीच अपनी पार्टी के मुद्दों को लेकर जा रहे हैं. उन्हें भरोसा है कि बिहार की जनता उन्हें मौका देगी.
कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज्म मुकेश शर्मा से बातचीत में उन्होंने दावा किया है कि इस चुनाव में जन सुराज या तो अर्श पर होगी या फ़र्श पर. बीच में कोई परिणाम नहीं आएगा.
उन्होंने इस बातचीत में चुनाव लड़ने से लेकर मुख्यमंत्री बनने की ख़्वाहिश, नीतीश कुमार की नीतियों, तेजस्वी यादव की चुनौती से लेकर एसआईआर और चुनाव आयोग पर खुलकर बात की है.
पेश है इस बातचीत के कुछ अंश
बिहार में आपकी तीन सबसे बड़ी प्राथमिकताएं क्या हैं?
हमारी पहली प्राथमिकता होगी- बेरोज़गारी और पलायन. पहली बार हो रहा है कि बिहार में किसी राजनीतिक संगठन ने पलायन को मुद्दा बनाया है.
दूसरा मुद्दा है- शिक्षा. बिहार में शिक्षा की स्थिति कभी बहुत अच्छी नहीं रही. लालू जी के शासन में फिर भी कुछ सरकारी स्कूल ऐसे थे जहां अच्छी पढ़ाई होती थी. नीतीश जी के शासन में ये स्कूल सरकारी सुविधाओं को बांटने का केंद्र बन गए. लोग भूल गए कि स्कूल पढ़ाई का केंद्र होते हैं.
तीसरा और आखिरी बड़ा मुद्दा है- अधिकारियों का दबदबा हो गया है. नीतीश जी की पूरी व्यवस्था चार-पांच अधिकारियों के ज़िम्मे है.
आप पहली बार सक्रिय राजनीति में राजनीतिक दल बना कर आ रहे हैं. लोग आप पर इतना भरोसा क्यों करेंगे?
जन सुराज पर भरोसा दूसरा सवाल है. पहला प्रश्न है कि लोग बिहार में बदलाव चाहते हैं या नहीं. मैंने बीते 2-3 सालों में अनुभव किया है कि 60 प्रतिशत से ज्यादा लोग बदलाव चाहते हैं.
1990 में लालूजी मुख्यमंत्री बने तब भी बिहार देश का सबसे गरीब, पिछड़ा, बेरोज़गार और पलायन वाला राज्य था. 2005 में जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने तब भी देश का सबसे गरीब और पिछड़ा राज्य बिहार ही था. आज 2025 में भी देश का सबसे गरीब और पिछड़ा राज्य बिहार ही है. लोग ऊब गए हैं और अब बदलाव चाहते हैं.
कितनी सीटें जीतने का भरोसाआप सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाले हैं. कितनी सीटों पर जीत का भरोसा है?
मैं आपको नंबर नहीं बता सकता लेकिन मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि हम जो प्रयास कर रहे हैं इसका एक ही परिणाम होगा. या तो जन सुराज अर्श पर होगा या फर्श पर. बीच में कोई परिणाम नहीं आने वाला. 20, 25, 30, 40, 50 सीटें नहीं आएंगी. या तो जन सुराज को 10 से कम सीट आएंगी या फिर इतनी सीट आएंगी कि व्यवस्था परिवर्तन की पहल साकार होगी.
अगर बीच में नंबर आ गया तो? तब क्या करेंगे?
जनता सिर्फ सरकार के लिए वोट नहीं करती है. जनता ये भी तय करती है कौन सरकार में रहेगा, कौन विपक्ष में और कौन सड़क पर. मैं समझता हूं कि या तो जनता हमें सरकार में भेजेगी या सड़क पर. हम उसके लिए बिलकुल तैयार हैं. अगर जनता हमें सड़क पर भेजती है तो विपक्ष में रहने से अच्छा है मैं पांच साल फिर सड़क पर रहूंगा. जितनी मेहनत अभी कर रहे हैं उससे दोगुनी मेहनत और करेंगे. मान लेते हैं 10-20 विधायक जीते. मैं उन्हें कह दूंगा जिसे जिस पार्टी में जाना है जाए, मुझे फिर से शुरू करने दो. मैं फर्श पर ही रहूंगा.
अगर त्रिशंकु स्थिति बनी तो सरकार कैसे बनेगी?
ऐसी स्थिति में हम किसी को भी सपोर्ट नहीं करेंगे. हम कह देंगे तुमको (जीतने वाले को) सरकार बनाना है बनाओ, नहीं बनाना है मत बनाओ. राष्ट्रपति शासन लगाओ, ये भी नहीं करना है, फिर से चुनाव कराओ. दांव खेलने से उन्हें डर लगता है जिन्हें मंत्री बनना है, हमें मंत्री नहीं बनना.
क्या मुख्यमंत्री बनेंगे?अब अर्श की बात करते हैं. अगर आपकी पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में आती है. क्या आप उस सूरत में मुख्यमंत्री बनेंगे?
अर्श पर आने का मतलब कि उत्तर भारत और इस देश की राजनीति में एक नया इतिहास लिखा जाएगा. ऐसा कभी हुआ नहीं कि दो-ढाई साल में कोई आदमी एक दल बना कर बिहार जैसा राज्य जीत जाए. जो लोग जीतेंगे वो इतिहास लिखेंगे और उनमें इतनी क्षमता तो होगी कि वो अपना लीडर चुन लें. जैसे पार्टी ने मनोज भारती को अध्यक्ष चुना, उदय सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना, सुभाष कुशवाहा को जनरल सेक्रेटरी चुना. वैसे ही वो आगे का नेता भी चुन लेंगे.
उन्होंने तो पार्टी के अहम पदों पर दूसरे नाम इसलिए चुने क्योंकि आपने ये नेतृत्व पद लेने से इनकार कर दिया?
अगर ऐसा होता है कि जीत कर जब वो लोग मेरे पास आएंगे तो संभव है कि मैं कह दूं कि मैं मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहता हूं. मैं रोज कह रहा हूं मेरे जीवन का लक्ष्य मुख्यमंत्री बनना नहीं है.
लेकिन मुख्यमंत्री के पास चीजें बदलने की शक्ति होती है.
जिसे भी आप देश का बड़ा नेता मानते हैं उनमें से ज्यादातर आजादी से पहले के नेता हैं. उन्होंने कभी जीवन में चुनाव नहीं लड़ा. क्या उन्होंने समाज को धारा नहीं दी. समाज के लिए कुछ किया नहीं.
प्रशांत किशोर चुनाव लड़ेंगे?
ज्यादातर लोग यही कह रहे हैं कि चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. लेकिन यह निर्णय पार्टी का है. जन सुराज की पूरी व्यवस्था को कोर कमेटी चलाती है. आपको लग रहा होगा कि ये सिर्फ कहने के लिए कह रहे हैं. पार्टी तो प्रशांत किशोर ही चला रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है.
आप अपना सबसे प्रमुख प्रतिद्वंद्वी किस पार्टी को मानते हैं?
एनडीए. लड़ाई सीधा एनडीए से ही होगी. एनडीए का सोशल बेस बहुत बड़ा है. 30 प्रतिशत डिनॉमिनेटर है आरजेडी का सपोर्ट बेस. जिसे एमवाई कहते हैं. बाकी जो भी 70 प्रतिशत बचा वो सब एनडीए का है. एनडीए को बहुत बड़ा घाटा होगा तो भी उनका डिनॉमिनेटर बड़ा है इसलिए लड़ाई उनसे होगी.
तेजस्वी को टारगेट क्यों?बहुत लंबे समय तक आपने लगातार तेजस्वी यादव को टारगेट किया. पिछले चुनाव में उनका दल सबसे बड़ा दल था.
तेजस्वी की 75 में से चिराग पासवान के जेडीयू वाली 38 सीटों को हटा दीजिए. (माना गया कि इन सीटों पर चिराग पासवान की पार्टी के प्रत्याशियों ने एनडीए के वोट काटे जिससे आरजेडी प्रत्याशियों की जीत हुई) जो बाकी बची सीटें हैं, वही आरजेडी की ताकत है. वही ताकत आगे भी रहेगी. ये कहने वाली बात नहीं है. लोकसभा चुनाव इसका प्रमाण हैं. अगर तेजस्वी की इतनी लोकप्रियता थी कि वो 80 सीटें ला सकें तो लोकसभा में तीन सीट पर कैसे आ गए.
आप तेजस्वी यादव को लेकर बहुत तीखी टिप्पणियां भी करते रहे हैं.
मैंने सिर्फ दो बातें बोली हैं. पहला- वो 9वीं फेल हैं. क्या वो 9वीं फेल नहीं हैं. क्या ये मेरी राय है. मेरी बात को समझिए. बहुत कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी बहुत होशियार हो सकता है. बहुत पढ़ा लिखा व्यक्ति भी बिलकुल बेवकूफ हो सकता है. फर्क क्या है? कई बार सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के चलते पढ़ाई लिखाई नहीं कर पाता. लेकिन जिस व्यक्ति की हम बात कर रहे हैं उनके माता-पिता दोनों यहां मुख्यमंत्री थे. उनके समर्थक कह सकते है कि वो क्रिकेट खेलते थे. अब क्रिकेट में कितने बड़े खिलाड़ी थे उस पर बहस नहीं करना चाहता हूँ. उस क्रिकेट को छोड़े हुए भी उनको 20 साल हो गए. जिस बिहार को लोग ज्ञान की भूमि के तौर पर जानते हैं उसका नेता ऐसा व्यक्ति हो जिसके मन में शिक्षा के लिए सम्मान न हो तो वो मेल नहीं खाता.
आपने जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) दोनों के साथ काम किया है, उसका अफ़सोस है आपको?
मैंने दोनों के साथ काम नहीं किया है. हम नीतीश जी के साथ काम कर रहे थे. उसमें आरजेडी को गठबंधन के तौर पर जोड़ा गया था. 2015 का अभियान देख लीजिएगा. पूरे अभियान में लालूजी की एक भी फोटो नहीं थी. मैंने आरजेडी और कांग्रेस को मैनिफेस्टो भी जारी नहीं करने दिया था. सिर्फ सात निश्चय जारी हुए थे. तीनों दलों ने उस पर साइन किया था. एक ही चेहरा थे नीतीश कुमार.
अगर आपकी सरकार बनती है तो कोई एक फैसला जो आप जारी रखना चाहेंगे?
बहुत सारे फैसले हैं. जैसे उन्होंने यहाँ पर पंचायती राज में महिलाओं और पिछड़ी जाति को जो भागीदारी दी है वो बहुत बढ़िया, बेहतर फ़ैसला है.
नीतीश कुमार और राहुल गांधी के बारे में क्या बोले प्रशांत किशोर?आप इतने पुख्ता रूप से क्यों कह रहे हैं कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे?
हर चीज का एक अंत आता है. अब नीतीश कुमार अपनी राजनीति के अंतिम दौर में हैं. बाकी चीजों को छोड़ भी दें तो शारीरिक और मानसिक तौर पर नीतीश इस समय अपने पुराने समय के दसवें हिस्से के बराबर भी नहीं हैं.
बिहार में एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न) का मुद्दा चल रहा है. इस समय केंद्र में कांग्रेस और विपक्षी दल भी बड़े पैमाने पर चुनाव आयोग को घेर रहे हैं. आप लगातार जनता के बीच जा रहे हैं, क्या इस मुद्दे का असर दिख रहा है?
राहुल गांधी वोटर एडिशन की बात पर सवाल उठा रहे हैं. जबकि बिहार एसआईआर का मामला वोटर्स के नाम हटाने से जुड़ा है. मैं राहुल गांधी की हर बात का विरोध करता हूं. लेकिन इस मामले पर मैंने राहुल गांधी का समर्थन किया है. इसलिए नहीं कि वो राहुल गांधी कह रहे हैं. बल्कि इसलिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष के नेता का एक ओहदा है. वो देश की 60 करोड़ लोगों की आवाज है.
अगर वो चुनाव की प्रक्रिया के बारे में तथ्यों के साथ कुछ बात रख रहे हैं तो इलेक्शन कमीशन की जिम्मेवारी बनती है कि उसकी जांच कराए. हर पॉइंट का जवाब दे. इस मामले में मैं राहुल गांधी के साथ हूं.
रही बात एसआईआर की तो ये भाजपा और जदयू का किया है. ये लोग चाहते हैं कि समाज में सबसे निचले स्तर के लोग वोट ना कर पाएं, क्योंकि सबसे ज़्यादा एंटी इनकंबेंसी उसी में होती है. इन्हें पता है कि ये लोग वोट करेंगे तो सरकार के विपक्ष में वोट पड़ेगा. इसलिए भाजपा और जेडीयू चुनाव आयोग के साथ मिलकर ये एसआईआर का अभियान चला रही हैं.
कहा जा रहा है कि इलेक्टोरल रोल के शुद्धिकरण के लिए ये हो रहा है. अगर ऐसा होता तो डेढ़ साल पहले लोकसभा चुनाव हुआ उस समय शुद्धिकरण क्यों नहीं हुआ. क्या इलेक्शन कमीशन ये स्वीकार करने को तैयार है कि जिस इलेक्टोरल रोल से मोदी जी का चुनाव हुआ है वो सही नहीं है. इंटेंसिव रिवीज़न का अधिकार चुनाव आयोग को है, लेकिन एक पारदर्शी तरीके से.
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित)
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