भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी और तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है. बावजूद इसके हालिया संरक्षणवादी व्यापार नीतियों ने इसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे कर दिया है.
भारत के टैरिफ़ ऊंचे हैं और वैश्विक निर्यात में इसकी हिस्सेदारी दो फ़ीसदी से भी कम है.
भारत के घरेलू बाज़ार ने इसके विकास को बढ़ावा दिया है, जो अन्य कई देशों से ज़्यादा है. इसकी मुख्य वजह बाकी दुनिया में आर्थिक रफ़्तार का धीमा होना है.
लेकिन इस अशांत और बढ़ते हुए संरक्षणवादी दौर में भारत की आत्मनिर्भरता की चाहत, बस थोड़े समय के लिए एक ढाल का काम कर सकती है, क्योंकि कई देश अमेरिका की व्यापार नीतियों के बदलाव से जूझ रहे हैं.
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हालांकि, राष्ट्रपति ट्रंप ने हाल ही में अधिकांश देशों को टैरिफ़ के मामले में 90 दिनों की मोहलत दी है.
वैश्विक व्यापार पर निर्भर रहने वाले देशों के मुक़ाबले, अपने अपेक्षाकृत उदासीन रवैये की वजह से इन हालात में शायद भारत को थोड़ी मदद मिली है.
मुंबई के इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट रिसर्च में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर राजेश्वरी सेनगुप्ता कहती हैं, "वस्तुओं के वैश्विक व्यापार के मामले में भारत का कम एक्सपोज़र हमारे पक्ष में जा सकता है."
"यदि निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था टैरिफ़ के दबाव के कारण धीमी पड़ती है और हम 6 फ़ीसदी की दर से आगे बढ़ते हैं, तो अपने विशाल घरेलू बाज़ार की मदद से हम तुलनात्मक तौर पर मज़बूत दिखाई देंगे."
उन्होंने कहा, "भारत आमतौर पर व्यापार से कतराता है, यही बात हमारे लिए फ़ायदेमंद साबित हुई है. लेकिन, हम इससे संतुष्ट नहीं हो सकते हैं. भारत को नए अवसरों के लिए तैयार रहना होगा. साथ ही व्यापार के लिए धीरे-धीरे और रणनीतिक तौर पर रास्ते खोलना होंगे."
वैसे यह आसान नहीं होगा, क्योंकि व्यापार की बाधाएं और टैरिफ़ के साथ भारत के रिश्ते जटिल रहे हैं.
जाने माने व्यापार विशेषज्ञ और कोलंबिया विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया ने अपनी किताब 'इंडियाज़ ट्रेड पॉलिसीः द 1990 एंड बियोंड' में व्यापार को लेकर भारत के जटिल और अस्थिर विकास के बारे में बात की है.
युद्ध के बीच के वर्षों के दौरान कपड़ा, लोहा और स्टील उद्योगों ने उच्च स्तर की सुरक्षा पाने के लिए पैरवी की थी, जो उनको मिली भी.
दूसरे विश्व युद्ध के कारण हुई दीर्घकालिक कमी के कारण आयात नियंत्रण और भी सख्त कर दिए गए, जिन्हें बाद में विस्तृत लाइसेंस प्रणाली के ज़रिए लागू किया गया.
जब एशिया में ताइवान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर ने 1960 के दशक में अपनी निर्यात आधारित रणनीति को बदला, तब उन्होंने सालाना 8-10 फ़ीसदी की बढ़त हासिल की, जबकि भारत ने आयात प्रतिस्थापन को दोगुना करने का फ़ैसला किया.
नतीजा ये हुआ कि जीडीपी के हिस्से के तौर पर आयात, जो साल 1957-58 में 10 फ़ीसदी था, वो 1969-70 में 4 फ़ीसदी रह गया.
1960 के दशक के मध्य तक, भारत ने उपभोक्ता उत्पादों के आयात पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दिया था. इससे घरेलू निर्माताओं पर गुणवत्ता सुधारने का दबाव हट गया और वो सभी विश्व स्तरीय जानकारी और तकनीक से भी वंचित हो गए.
नतीजा ये हुआ कि भारतीय उत्पादों ने वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्धात्मकता को खो दिया और निर्यात स्थिर हो गया. इसके परिणामस्वरूप विदेशी मुद्रा की कमी ने आयात नियंत्रण को और भी सख्त कर दिया.
भारत में साल 1951 से 1981 के बीच, सालाना प्रति व्यक्ति आय में 1.5 फ़ीसदी की धीमी गति से बढ़ोतरी हुई.

यहां साल 1991 में नया मोड़ आया, जब भारत ने संतुलन और भुगतान संकट का सामना किया. इसके बाद, कई आयात नियंत्रण हटाए गए. इस कदम ने घरेलू निर्माताओं और निर्यातकों को आयात के साथ प्रतिस्पर्धा करने का मौका दिया.
जब वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन ने इसके ख़िलाफ़ फ़ैसला दिया, तो उपभोक्ता उत्पादों पर आयात लाइसेंसिंग साल 2001 में समाप्त कर दी गई.
इसका असर असाधारण साल 2002-03 और 2011-12 के बीच भारत के उत्पादों और सेवाओं का निर्यात छह गुना बढ़ा. यह 75 अरब डॉलर से बढ़कर 400 अरब डॉलर से ज़्यादा हो गया.
प्रोफ़ेसर पनगढ़िया ने बताया कि व्यापार उदारीकरण और अन्य सुधारों के साथ, भारत की प्रति व्यक्ति आय में साल 2000 से 2017 तक जितनी बढ़ोतरी हुई, उतनी पूरी 20वीं सदी में नहीं हुई थी.
मगर, व्यापार के प्रति प्रतिरोध समाप्त नहीं हुआ.
प्रोफ़ेसर पनगढ़िया ने बताया कि भारत में व्यापार उदारीकरण को दो बार उलट दिया गया. पहली बार साल 1996-97 में और फिर दूसरी बार 2018 में. सबसे ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक स्रोतों से आने वाले उत्पादों के आयात को रोकने के लिए बड़े कदम उठाए गए.
कनाडा की कार्लटन यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर विवेक डी. कहते हैं, "भारत जैसे कई देशों में यह सोच गहराई से पैठ कर गई है कि अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य और व्यापार भी उपनिवेशीकरण के नए रूप हैं. दुर्भाग्य से, यही सोच अभी भी कई नीति-निर्माताओं के बीच कायम है, जो कि शर्मनाक है."
कई अर्थशास्त्री यह तर्क देते हैं कि दशकों तक संरक्षणवादी नीतियों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'मेक इन इंडिया' प्रयास कमज़ोर पड़ गया.
इसमें पूंजी और तकनीक आधारित सेक्टरों पर फोकस किया गया, जबकि श्रम यानी कामगारों पर आधारित उद्योग जैसे; टेक्सटाइल दरकिनार कर दिए गए. इसकी वजह से यह अभियान उत्पादन और निर्यात में अपेक्षित परिणाम देने के लिए संघर्ष कर रहा है.
भारत के लिए कहां है अवसरप्रोफ़ेसर पनगढ़िया ने कहा, "यदि विदेशी उनके उत्पाद हमें नहीं बेच सकते हैं, तो जो उत्पाद वो हमसे ख़रीदते हैं, उसका भुगतान करने का धन उनके पास नहीं होगा. यदि हम उनके उत्पादों में कटौती करते हैं, तो वो भी हमारे ऊपर कटौती कर सकते हैं."
इस तरह के संरक्षणवाद की वजह से भाई-भतीजावाद के आरोप भी लगते रहे हैं.
न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के स्टर्न स्कूल ऑफ़ बिज़नेस में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं विरल आचार्य.
वह कहते हैं, "टैरिफ़ ने कई भारतीय उद्योगों में संरक्षणवाद को पैदा किया है, जिससे मौजूदा उद्योगों में सामर्थ्य के साथ निवेश करने में बाधा पैदा हुई है."
इस मौके का फ़ायदा उठाने के लिए अर्थशास्त्री मानते हैं कि भारत को अपना टैरिफ़ कम करना चाहिए. निर्यात की प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना चाहिए और वैश्विक व्यापार के लिए खुलेपन का संकेत देना चाहिए.
अभी गारमेंट्स, टैक्सटाइल्स और टॉयज़ जैसे मध्यम और लघु उद्योगों के लिए यह एक सुनहरा अवसर है.
मगर, एक दशक की स्थिरता के बाद, बड़ा सवाल ये है कि क्या वे आगे बढ़ सकते हैं? क्या सरकार उनका समर्थन करेगी?
दिल्ली के थिंक टैंक 'ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव' के एक अनुमान के मुताबिक, यदि राष्ट्रपति ट्रंप मौजूदा रोक के बाद अपनी टैरिफ़ योजनाओं पर अमल करते हैं, तो इस साल अमेरिका को भारत के निर्यात में 7.76 अरब डॉलर या 6.4 फ़ीसदी की कमी आ सकती है.
जीटीआरआई के अजय श्रीवास्तव कहते हैं, "ट्रंप के टैरिफ़ से अमेरिका को भारत के निर्यात में हल्का झटका लगने की आशंका है."
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारत को अमेरिका के साथ एक संतुलित समझौता करने के बाद अपना व्यापार आधार बढ़ाने की ज़रूरत है.
इसमें यूरोपीय यूनियन, ब्रिटेन और कनाडा के साथ तेज़ी से समझौता करने के बाद चीन, रूस, जापान, दक्षिण कोरिया और एशियाई देशों के साथ संबंध मज़बूत करना शामिल है.
घरेलू स्तर पर, वास्तविक असर सुधारों पर निर्भर करता है. इनमें सरल टैरिफ़, एक सहज जीएसटी, बेहतर व्यापार प्रक्रियाएं और गुणवत्ता नियंत्रण का निष्पक्ष क्रियान्वयन शामिल है. इसके बिना, भारत के सामने वैश्विक अवसर से चूकने का जोखिम बना हुआ है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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