Next Story
Newszop

मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट के 5 ऐतिहासिक फ़ैसले और उनका असर

Send Push
Getty Images बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के तहत भारत में शादी की न्यूनतम उम्र महिलाओं के लिए 18 साल और पुरुषों के लिए 21 साल तय की गई है. (सांकेतिक तस्वीर)

मुस्लिम लड़कियों की शादी की उम्र से जुड़े एक अहम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (19 अगस्त) को फ़ैसला सुनाया है.

कोर्ट ने 16 साल की मुस्लिम लड़की की शादी को मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत सही ठहराया है.

यह फ़ैसला जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस महादेवन की खंडपीठ ने सुनाया. खंडपीठ ने शादी पर सवाल उठाने वाले राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) को फटकार भी लगाई है.

आयोग ने लड़की की उम्र का हवाला देते हुए शादी पर सवाल उठाया था और इसे पॉस्को अधिनियम (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण) का उल्लंघन बताया था.

इस फ़ैसले के बाद बाल विवाह कानून बनाम पर्सनल लॉ की बहस और तेज़ हो गई है. भारत में बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 के तहत लड़की की शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल है.

समय-समय पर अदालतों, ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कई अहम फैसले दिए हैं, जिनका मुस्लिम महिलाओं के जीवन पर सीधा असर पड़ा है.

  • बेंगलुरु: बिना इजाज़त महिलाओं के वीडियो बनाकर इंस्टाग्राम पर डालने के आरोप में युवक ग़िरफ़्तार, क्या कहता है क़ानून?
  • पति की हत्या की हर घटना 'ट्रेंड' क्यों बन जाती है? इस एकतरफ़ा विमर्श को कैसे समझें- ब्लॉग
  • गुरु दत्त की फ़िल्म 'मिस्टर एंड मिसेज़ 55' क्या स्त्री विरोधी है?
1. जावेद और आशियाना केस image Getty Images जावेद ने साल 2022 में हाई कोर्ट को बताया था कि उनकी पत्नी का जन्म 15 मार्च 2006 को हुआ है और शादी के समय उनकी उम्र 16 साल से अधिक थी. (सांकेतिक तस्वीर)

साल 2022 में 26 साल के जावेद और 16 साल की मुस्लिम लड़की आशियाना के प्रेम विवाह को हाई कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत वैध माना था.

यह मामला पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट में तब पहुंचा था जब दोनों ने अपनी सुरक्षा की मांग की थी. हाई कोर्ट ने शादी को वैध मानते हुए सुरक्षा भी प्रदान की थी.

लाइव लॉ के मुताबिक हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था, "मुस्लिम लड़की का विवाह मुस्लिम पर्सनल लॉ से शासित होता है. सर दिनशॉ फरदुनजी मुल्ला की लिखी 'मोहम्मडन लॉ के सिद्धांत' किताब के अनुच्छेद 195 के अनुसार याचिकाकर्ता नंबर 2, सोलह साल से अधिक होने के कारण अपने पसंद के व्यक्ति के साथ विवाह अनुबंध करने के लिए सक्षम है."

दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष रहे ज़फरुल इस्लाम ख़ान का कहना है, "मुस्लिम पर्सनल लॉ में शादी के लिए लड़की की कोई उम्र तय नहीं है. लड़कियों में जब प्यूबर्टी आती है, तब उसे शादी के लायक माना जाता है."

कोर्ट का कहना था कि इससे बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) का उल्लंघन नहीं होता.

एनसीपीसीआर ने हाई कोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसे कोर्ट ने खारिज़ कर दिया.

लाइव लॉ के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "एनसीपीसीआर के पास ऐसे आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है…अगर दो नाबालिग़ बच्चों को हाई कोर्ट संरक्षण देता है तो एनसीपीसीआर ऐसे आदेश को कैसे चुनौती दे सकता है."

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की तारीफ़ करते हुए ज़फरुल इस्लाम कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला मुनासिब है. अंग्रेज़ों के बाद से ही हिंदुस्तान की हुकूमतों का स्टैंड इस्लामी पर्सनल लॉ में दखल नहीं देने का रहा है."

वहीं दूसरी तरफ नेशनल काउंसिल ऑफ वूमन लीडर्स की नेशनल कन्वीनर और मानवाधिकार कार्यकर्ता मंजुला प्रदीप का कहना है कि लड़कियों को सामाजिक रीति रिवाज से मुक्त करने की ज़रूरत है.

बीबीसी से बातचीत में वे कहती हैं, "प्यूबर्टी की उम्र में लड़की शारीरिक बदलावों से गुजरती है. ये मुश्किल समय होता है. ऐसे में वह खुद शादी जैसे फैसले नहीं ले पाती. उसके फैसले परिवार लेता है."

"लड़कियों को मौका मिलना चाहिए कि वे पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो पाएं और अपने फैसले ले पाएं."

  • सुप्रीम कोर्ट ने महिला आईपीएस अधिकारी को पति और सास ससुर से माफ़ी मांगने को कहा, क्या है पूरा मामला?
  • बेबीडॉल आर्ची: बदला लेने के लिए एआई से बनाया असली महिला का एडल्ट कंटेंट
  • राजस्थानः 23 छात्र-छात्राओं के यौन शोषण के आरोप में शिक्षक गिरफ़्तार, पूरा मामला जानिए
2. शायरा बानो केस image BBC शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक़ को असंवैधानिक करार देने की मांग उठाई थी.

साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-बिद्दत यानी 'तीन तलाक को असंवैधानिक घोषितकर दिया था.

इस मामले की याचिकाकर्ता उत्तराखंड की रहने वालीं शायरा बानो थीं. उनकी शादी साल 2002 में हुई थी. करीब 15 साल बाद उनके पति ने उन्हें एक चिट्ठी भेजकर तीन तलाक दे दिया था.

पांच जजों की संविधान पीठ ने 3-2 के बहुमत से फ़ैसला सुनाया था. कोर्ट का कहना था कि यह महिलाओं की समानता और गरिमा के ख़िलाफ़ है.

उस वक्त शायरा बानो के वकील बालाजी श्रीनिवासन ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, "ये पहला मौका है जब एक मुस्लिम महिला ने अपने तलाक़ को इस आधार पर चुनौती दी कि इससे उनके मूल अधिकारों का हनन हुआ."

इस फ़ैसले का कानूनी असर ये हुआ था कि साल 2019 में संसद ने मुस्लिम महिला अधिनियम पास किया. इसके तहत तीन तलाक को गैरकानूनी और दंडनीय अपराध घोषित किया गया.

हालांकि कई धार्मिक संगठनों ने इस फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा था कि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल है.

ज़फरुल इस्लाम कहते हैं, "पर्सनल लॉ को मुस्लिम समाज पर छोड़ देना चाहिए. दीन के जो मसले हैं, उसमें किसी हुकूमत को दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए."

वहीं मंजुला प्रदीप का कहना है, "महिला होने के नाते मैं यह कभी स्वीकार नहीं कर सकती कि कोई तीन शब्द बोलकर किसी महिला को खुद से अलग कर दे. ये अन्याय है."

वे कहती हैं, "तीन तलाक को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद महिलाओं में हिम्मत बढ़ी है. वे क़ानून का सहारा ले सकती हैं."

  • महिला के बैग में मिली दो साल की बच्ची, ऐसे सामने आया मामला
  • छत्तीसगढ़ में धर्मांतरण के आरोप में ननों की ग़िरफ़्तारी, केरल बीजेपी क्यों है परेशान
  • एक दुल्हन से दो भाइयों की शादी पर बहस: हिमाचल प्रदेश की जोड़ीदारा परंपरा क्या है
3. हाजी अली दरगाह केस image Getty Images मुंबई की हाजी अली दरगाह

यह केस मुंबई की मशहूर दरगाह में महिलाओं की एंट्री और बराबरी के अधिकार से जुड़ा है.

2011 के बाद महिलाओं को दरगाह के अंदरूनी हिस्से में जाने से रोक दिया गया था. दरगाह का इंतज़ाम देखने वाली ट्रस्ट का कहना था कि महिलाओं का दरगाह के अंदर जाना धार्मिक नियमों के ख़िलाफ़ है.

इसके ख़िलाफ़ भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर की. साल 2016 में कोर्ट ने महिलाओं के पक्ष में फ़ैसला सुनाया.

कोर्ट का कहना था कि ट्रस्ट धार्मिक स्वतंत्रता का हवाला देकर महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं कर सकता है. इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने भी सही माना था.

यह फ़ैसला महिलाओं की धार्मिक स्थलों में बराबरी की लड़ाई का प्रतीक बन गया. इसके बाद सबरीमाला मंदिर और शनि शिंगणापुर मंदिर जैसे मामलों में महिलाओं के जाने को लेकर कानूनी बहस तेज हुई.

  • 'आपके लिवर में बच्चा है', महिला को बताकर डॉक्टर ने क्या सलाह दी
  • यूनिवर्सिटी-कॉलेज कैंपसों में यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना छात्राओं के लिए कितना जोखिम भरा
  • तीजन बाई: पंडवानी के शिखर पर पहुंचने वाली पहली गायिका को क्या-क्या सहना पड़ा
4. शाह बानो केस image Getty Images भारत का सुप्रीम कोर्ट

यह मामला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई में मील का पत्थर माना जाता है.

इंदौर की रहने वाली शाह बानो का साल 1932 में निकाह हुआ था. उनके पांच बच्चे थे.

साल 1978 में 62 साल की शाह बानो ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. उन्होंने अपने पति मोहम्मद अमहद ख़ान से तलाक के बाद हर महीने 500 रुपए गुजारा भत्ता की मांग की.

उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता(सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ते की मांग की थी. उनके पति मोहम्मद अहमद ख़ान ने तर्क दिया था कि भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार तलाक के बाद पति इद्दत की मुद्दत तक ही गुज़ारा भत्ता देता है.

मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक़ इद्दत वह अवधि होती है, जब एक पत्नी अपने पति की मौत या तलाक के बाद बिताती है. ये तीन महीने का समय होता है, लेकिन स्थिति के अनुसार इसमें बदलाव किया जा सकता है.

इस मामले पर लंबी सुनवाई चली. 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फ़ैसला सुनाया. कोर्ट का कहना था कि सीआरपीसी की धारा 125 सभी नागरिकों पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कोई भी हो.

फ़ैसले को मुस्लिम महिलाओं के लिए जीत माना गया है, लेकिन मुस्लिम समुदाय के एक बड़े वर्ग ने इसका विरोध किया और इसे शरीयत में दखल करार दिया.

विरोध के दबाव में एक साल बाद राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर संरक्षण अधिनियम), 1986 पास कर दिया.

इसकी नतीजा ये हुआ कि शाह बानो के मामले पर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट गया और कहा गया कि इद्दत की अवधि के लिए ही भत्ता दिया जा सकता है.

  • सत्ता का जुनून और 'त्रासदी', कहानी ईरान की शहज़ादी अशरफ़ पहलवी की
  • 'डिजिटल रेप' क्या होता है और क़ानून में इसकी क्या सज़ा है?
  • किशोरावस्था में प्रेगनेंसी को लेकर बढ़ रही चिंता, सोशल मीडिया कितना ज़िम्मेदार, छिड़ी चर्चा
5. डेनियल लतीफ़ी केस image Getty Images इस मामले में कोर्ट का कहना था कि पति को इद्दत के दौरान ही इतना प्रबंध करना होगा कि महिला के भविष्य का पूरा गुज़ारा सुनिश्चित हो सके.

यह मामला शाह बानो केस से सीधा जुड़ा हुआ है. शाह बानो केस में वकील डेनियल लतीफी ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की.

इस याचिका में उन्होंने राजीव गांधी सरकार के मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून, 1986 की वैधता को चुनौती दी थी.

कोर्ट ने अधिनियम की वैधता को बरकरार रखते हुए कहा था, "मुस्लिम पति का अपनी तलाकशुदा पत्नी के प्रति भरण-पोषण का दायित्व इद्दत अवधि तक सीमित नहीं है."

फैसले में कहा गया था कि पति को इद्दत की अवधि में ही जीवनभर के लिए गुजारा भत्ते की व्यवस्था करना होगी.

इस फैसले ने मुस्लिम महिलाओं को लंबी अवधि के लिए आर्थिक सुरक्षा दिलाई.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

  • इस्मत चुग़ताई: अश्लीलता के आरोप और ऐसा जवाब कि जज भी हँस पड़े
  • 'लोग कहते, तुम्हारी ज़िम्मेदारी कौन लेगा' बाल विवाह के ख़िलाफ़ लड़ने वाली सोनाली की कहानी
  • बेटियों को जायदाद में हक़ देने के फ़ैसले पर आदिवासी समुदाय में क्यों मची है हलचल?
image
Loving Newspoint? Download the app now