New Delhi, 29 जुलाई . भारत की प्रसिद्ध महिला चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ता मुथुलक्ष्मी रेड्डी की 30 जुलाई को जयंती है. 1886 में पुडुकोट्टई की छोटी सी रियासत में जन्मी मुथुलक्ष्मी रेड्डी ने कई चुनौतियों का सामना किया. यह सिर्फ नियति ही नहीं, बल्कि उनकी अदम्य भावना और साहस था, जिसने बाधाओं को पार किया.
उन्हें ऐसे माहौल से जूझना पड़ा जो न सिर्फ प्रतिकूल था, बल्कि शत्रुतापूर्ण भी था. मुथुलक्ष्मी में बचपन से ही चिकित्सा की पढ़ाई करने की गहरी इच्छा थी, लेकिन उस दौर में समाज ऐसा था कि मुथुलक्ष्मी रेड्डी को मैट्रिक की पढ़ाई अपने घर पर रहकर ही पूरी करनी पड़ी. बाद में जब कॉलेज में प्रवेश किया तो यह पुदुकोट्टई शहर में उस समय की चर्चा का विषय था. महाराजा कॉलेज के इतिहास में किसी भी लड़की को वहां प्रवेश नहीं मिला था.
भारत अंतर्राष्ट्रीय केंद्र के एक नोट में जिक्र है कि मुथुलक्ष्मी के कॉलेज में प्रवेश पर कुछ लोगों की ओर से विरोध का एक तीव्र स्वर फूट पड़ा था. पुडुकोट्टई राजपत्र के अनुसार, पुडुकोट्टई के तत्कालीन राजा मार्तंड भैरव टोंडिमन की दूरदर्शिता और स्वतंत्रता को यह श्रेय देना होगा कि उन्होंने सभी आपत्तियों को दरकिनार कर दिया और उसे प्रवेश की अनुमति दी.
मुथुलक्ष्मी ने 1912 में सम्मान के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त की और मद्रास प्रेसीडेंसी की पहली महिला चिकित्सा स्नातक बनीं. इसके बाद, 1927 में विधान परिषद की पहली भारतीय महिला सदस्य बनीं.
हालांकि, 28 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मुथुलक्ष्मी को अपनी शर्तों पर शादी करने के लिए मजबूर होना पड़ा. बताया जाता है कि उन्होंने कुछ शर्तें रखीं, जिनमें यह भी शामिल था कि उनका भावी पति “उन्हें हमेशा बराबरी का सम्मान देगा” और “कभी उनकी इच्छाओं का उल्लंघन नहीं करेगा.”
उनका विवाह डी. टी. संदरा रेड्डी से हुआ, जो एक डॉक्टर थे. शादी के बाद डॉ. रेड्डी पुडुकोट्टई सरकारी अस्पताल में मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे और मुथुलक्ष्मी भी उनके साथ काम करने लगीं.
कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मुथुलक्ष्मी की मुलाकात सरोजिनी नायडू से हुई और वे महिलाओं की सभाओं में जाने लगीं, जिसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ा. वह असहाय महिलाओं और बच्चों की पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणास्रोत थीं.
1926 से 1930 तक, उन्होंने ब्रिटिश भारत की विधान परिषद की सदस्य के रूप में कार्य किया और इस पद पर नियुक्त होने वाली पहली महिला बनीं. परिषद में उन्होंने महिलाओं के कानूनी अधिकारों की वकालत करते हुए अछूतों के अधिकारों की जोरदार वकालत की.
परिषद में अपने पहले वर्ष के दौरान मुथुलक्ष्मी ने महिला शिक्षा को आगे बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया. स्वास्थ्य सेवा में अपने काम के अलावा मुथुलक्ष्मी ने पर्दा (महिलाओं का पर्दा) जैसी प्रथाओं और देवदासियों व वेश्याओं के शोषण के खिलाफ भी आवाज उठाई. अपर्णा बसु और भारती रे ने “महिला संघर्ष: अखिल भारतीय महिला सम्मेलन का इतिहास 1927-2002” (2003) में उल्लेख किया है कि मुथुलक्ष्मी ने वेश्यावृत्ति के संबंध में दो महत्वपूर्ण बिंदु रखे थे.
एक विधायक और समाज सुधारक के रूप में उनकी उपलब्धियों का महिलाओं के जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ा. वह जीवन भर महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ती रहीं. उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई में भी बढ़-चढ़कर सहयोग दिया था. देश और समाज के क्षेत्र में उनके अहम योगदान के लिए सन् 1956 में भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था. 22 जुलाई 1968 को उनका निधन हुआ था.
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डीसीएच/डीएससी
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