New Delhi, 15 अगस्त . स्वतंत्रता दिवस और जन्माष्टमी की पूर्व संध्या पर दार्शनिक और लेखक आचार्य प्रशांत ने कहा कि 1947 में मिली भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता, गीता के आह्वान—आंतरिक मुक्ति—के बिना अधूरी है. उन्होंने स्पष्ट कहा कि सच्ची स्वतंत्रता के लिए आध्यात्मिक मुक्ति और विचारों की स्वतंत्रता, दोनों अनिवार्य हैं.
उन्होंने कहा कि इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस और जन्माष्टमी का एक साथ पड़ना एक गहरा प्रतीक है—राष्ट्र की भलाई और वास्तविक धार्मिकता एक-दूसरे से अलग नहीं हैं. स्वतंत्रता दिवस पहले आता है, फिर जन्माष्टमी. यह संकेत देता है कि बाहरी स्वतंत्रता अपेक्षाकृत सरल और पहले प्राप्त होती है, जबकि भीतरी मुक्ति कठिन है, लेकिन कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. यह मात्र संयोग नहीं है. जैसे 15 और 16 तारीख के बीच कोई अंतराल नहीं, वैसे ही राष्ट्र के हित और सच्ची धार्मिकता में कोई दूरी नहीं होनी चाहिए. मानो समय स्वयं कह रहा हो कि राजनीतिक और भीतरी स्वतंत्रता को साथ-साथ खड़ा होना चाहिए.
उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता दिवस बाहरी शासन से मुक्ति का प्रतीक है, जबकि जन्माष्टमी श्रीकृष्ण के उस आह्वान का प्रतीक है जिसमें वे मानसिक बंधनों से मुक्ति की ओर ले जाते हैं. दोनों स्वतंत्रताएं समान रूप से आवश्यक हैं, और एक के बिना दूसरी अधूरी रहती है. स्वतंत्रता दिवस हमें एक बाहरी शोषक, अंग्रेजों की याद दिलाता है, जबकि जन्माष्टमी हमें हमारे भीतर मौजूद छह शत्रुओं (षड रिपु) से सामना कराती है: मद, मोह, काम, क्रोध, लोभ और मात्सर्य.
उन्होंने कहा कि राजनीतिक स्वतंत्रता ने बाहरी दमन तो समाप्त कर दिया, लेकिन हमें लोभ, भय और अज्ञान की ग़ुलामी से मुक्त नहीं कर पाई. अगर इन भीतरी शत्रुओं को नहीं हराया गया, तो मिले हुए अधिकार और स्वतंत्रताएं भी हमारे बंधनों को और गहरा करने का काम कर सकती हैं. आज दुनिया भर में हम देख रहे हैं कि जहां भीतरी मुक्ति नहीं है, लेकिन बाहरी अधिकार बहुत हैं, वहां लोग ‘फ्री विल’ और ‘फ्री चॉइस’ के नाम पर न जाने क्या-क्या कर बैठते हैं.
गीता का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि असली स्वतंत्रता वही है जिसमें कर्म आंतरिक स्पष्टता से उपजे, बाध्यता से नहीं. उन्होंने चेताया कि जब भीतर मुक्ति नहीं होती, तो बाहरी स्वतंत्रता भी ख़तरनाक साबित हो सकती है. जो व्यक्ति भय, लोभ या मोह का ग़ुलाम है, वह अपने ही अधिकारों का इस्तेमाल अपनी बेड़ियां और कसने में करेगा.
आचार्य प्रशांत ने कहा कि कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि पर कृष्ण ने अर्जुन से यह नहीं कहा कि युद्ध से भाग जाओ, न ही यह कहा कि क्रोध में लड़ो. उन्होंने बंधनों से मुक्त होकर कर्म करने को कहा: यही मुक्ति है. इसके बिना, राजनीतिक रूप से स्वतंत्र राष्ट्र भी अपनी पूरी क्षमता प्राप्त नहीं कर सकता. उन्होंने आगे कहा कि याद रखिए, 18 दिनों के युद्ध से पहले गीता के 18 अध्याय आए- शस्त्र से पहले शास्त्र, कर्म से पहले ज्ञान. अर्जुन को बाहर के दुश्मन ने नहीं, बल्कि भीतर के भय और मोह ने जकड़ रखा था. कृष्ण ने पहले उन्हें स्पष्टता दी, फिर युद्ध के लिए कहा. ज्ञान पहले आता है, वरना सबसे वीर योद्धा भी डगमगा जाता है.
उन्होंने कहा कि विचारों की स्वतंत्रता आध्यात्मिक मुक्ति से अलग नहीं हो सकती. भीतर से स्वतंत्र होकर आप बाहर से उधार लिए विचारों के ग़ुलाम नहीं रह सकते. और यदि आप भय, पूर्वाग्रह या अंधविश्वास की जकड़ में हैं, तो आप स्वतंत्र रूप से सोच भी नहीं पाएँगे. मुक्ति और स्वतंत्रता हमेशा साथ-साथ चलती हैं.
उन्होंने चेताया कि इतिहास बताता है जब राष्ट्र गीता का संदेश भूलते हैं, तो वे अवश्य पतन की ओर बढ़ते हैं. उन्होंने कहा कि हमारे पास जनसंख्या भी थी, संसाधन भी थे, और दुनिया का सबसे ऊँचा दर्शन भी था, फिर भी हम अपनी स्वतंत्रता खो बैठे. यह तभी संभव है जब भीतर का संदेश भुला दिया जाए. इतना विशाल राष्ट्र, जिसके पास असीम संसाधन हों, वह हज़ारों मील दूर के छोटे-छोटे द्वीपों के सामने कैसे पराधीन हो सकता है, वह भी उस दौर में, जब उनके पास आज जैसी शक्ति या संचार की तकनीकें नहीं थीं? यह पतन तभी संभव है जब लोग अपने ही सर्वोच्च ज्ञान से मिली आंतरिक शक्ति को भुला बैठें.
एकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा, “हम सब भारतवासी हैं, फिर भी जब हम जाति, धर्म, विचारधारा, क्षेत्र या भाषा के आधार पर बँटते हैं, तो हम अपने ही साथियों को पराया बना देते हैं—और परायों को दुश्मन बनने में देर नहीं लगती. यह भीतर से हमें कमज़ोर कर देता है. इतिहास बताता है कि जब लोग अपने भीतर ही विभाजन में उलझे रहते हैं, तो वे बाहरी ताक़तों को न्योता दे देते हैं. अंदर से बिखरा राष्ट्र, बाहर से आने वाले आक्रमणकारियों के लिए आसान निशाना बन जाता है.
उन्होंने चेतावनी दी कि जब धर्म अंधविश्वास और अंधे कर्मकांड में सिमट जाता है, तो वह राष्ट्र को कमजोर कर देता है. जहां धर्म गिरता है, वहां राष्ट्र भी गिरता है. उन्होंने नागरिकों से आह्वान किया कि वे गीता के सार—आत्म-ज्ञान और सत्य—की ओर लौटें.
उन्होंने कहा कि भारत को भी पराधीनता झेलनी पड़ी क्योंकि हमने धर्म को केवल रस्मों और अंधविश्वास तक सीमित कर दिया. जब असली धर्म—जो ज्ञान और आत्म-जिज्ञासा का मार्ग है—खो जाता है, तो राष्ट्र की ताक़त भी उसके साथ ढह जाती है. धर्म का असली उद्देश्य है आपको भीतर की ओर ले जाना; बाहरी दिशाओं में भटकाना धर्म नहीं है.
ब्रिटिश शासन की जंजीरों और आज की सूक्ष्म जंजीरों के बीच समानता पर बोलते हुए उन्होंने कहा, “1947 में हमने राजनीतिक जंजीरें तोड़ दी थीं, लेकिन अब हमें भीतर की जंजीरें तोड़नी हैं—उपभोक्तावाद, संकीर्णतावाद और अंधानुकरण. इनके बिना स्वतंत्रता खोखली रह जाती है. जो लोग अपने ही भीतर बैठे दुश्मन—अपनी संकीर्ण पहचानों और मान्यताओं—को नजरअंदाज करते हैं और केवल बाहरी शत्रुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वे वही परिस्थितियां दोबारा बुला लेते हैं जिनसे कभी पराधीनता आई थी. अगर हम इन भीतरी दुश्मनों के प्रति लापरवाह रहे, तो इतिहास फिर से पराधीनता के हालात बना देगा. पराधीनता कभी यूं ही नहीं आती; यह तब शुरू होती है जब लोग आत्मज्ञान छोड़ देते हैं और भीतर के शत्रुओं के आगे हार मान लेते हैं.”
उन्होंने आगाह किया कि आंतरिक स्पष्टता के बिना राष्ट्रीय स्वतंत्रता भीतर से कमजोर हो सकती है. आचार्य प्रशांत ने कहा कि मन पर आत्म-नियंत्रण के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता संघर्ष, भ्रष्टाचार और अधिकारों के दुरुपयोग का कारण बनती है. गीता हमें केवल कर्मों के लिए ही नहीं, बल्कि विचारों और उद्देश्यों के प्रति भी जवाबदेह ठहराती है. ‘भीतरी स्वराज’ का आह्वान करते हुए उन्होंने नागरिकों से कहा कि वे झूठी पहचानों को त्यागें, सत्य में जिएं और बाध्यता नहीं बल्कि समझ से प्रेरित होकर कर्म करें. अपने भीतर झाँकिए, देखिए कि कौन-सी मान्यताएं, पूर्वाग्रह और डर आपको भीतर से चला रहे हैं और पूछिए कि ये कहां से आए और इनमें कितना सत्य है.
उन्होंने आगे कहा कि सत्य ही बल है. जो सत्य के साथ खड़ा है, उसे शारीरिक हानि पहुंचाई जा सकती है, पर हराया नहीं जा सकता. यही है स्वतंत्रता दिवस और जन्माष्टमी का सच्चा उत्सव—केवल झंडा फहराना या रस्में निभाना नहीं, बल्कि भीतर देखना कि हमें क्या चला रहा है और सत्य के माध्यम से मुक्ति की ओर बढ़ना. देशभक्ति केवल भावना तक सीमित न रहे; वह जागरूकता और जिम्मेदारी का उत्थान बने. गीता की मुक्ति और संविधान की स्वतंत्रता को साथ लाना ज़रूरी है. केवल तभी, जब राजनीतिक स्वराज आध्यात्मिक मुक्ति से जुड़ा हो, भारत अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रख पाएगा.
उन्होंने कहा कि इस बार स्वतंत्रता दिवस और जन्माष्टमी को साथ मनाने का सर्वोत्तम तरीक़ा यही होगा: आंतरिक और बाहरी मुक्ति का संगम. हम न सिर्फ स्वतंत्र भूमि के स्वतंत्र नागरिक बनें, बल्कि भीतर से भी स्वतंत्र जीव बनें—यही है पूर्ण स्वतंत्रता. कृष्ण की गीता पलायन नहीं, बल्कि निडर और विवेकपूर्ण जीवन का मार्ग दिखाती है. यदि हम इसे जिएं, तो इतिहास के युद्धक्षेत्र में जीती गई स्वतंत्रता, जीवन के युद्धक्षेत्र में भी सुरक्षित रहेगी.
अंत में आचार्य प्रशांत ने राष्ट्र के लिए प्रार्थना करते हुए कहा, “मेरी कामना है कि हर नागरिक विवेक, बुद्धि और सत्य के साथ जीवन जिए. तभी राष्ट्र और व्यक्ति, दोनों का सच्चा उत्थान संभव होगा.”
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पीएसके/केआर
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