नई दिल्ली: बनारस की तंग गलियां और 80 का दौर। कबीरचौरा में अच्छा खासा रसूख रखने वाले रामप्रसन्न सिंह के बेटे चंद्रकुमार की शादी गाजे-बाजे के साथ हुई। शादी को एक साल बीतने के बाद भी 'खुशखबरी' का नामोनिशान न था। परिवार ने काफी दबाव बनाया, लेकिन विवाह के 3-4 साल बाद भी कुछ न हुआ। मंदिरों की नगरी काशी के हर दर पर हाजिरी लगाने का सिलसिला शुरू हो गया। पंडित-पुजारी सब नाप दिए। आठ साल बीत गए। सबने आस छोड़ दी, तब अचानक 'खुशखबरी' मिली और रामप्रसन्न को पौते का मुंह देखने का सौभाग्य मिला। बच्चे का नाम आशीष रखा गया।
शादी के 8 साल बाद पैदा होने के कारण आशीष सबका दुलारा था। उसके दादा रामप्रसन्न उसे घंटों दुलार करते। आशीष की दादी एक प्रसिद्ध लोक गायिका थीं, लिहाजा बचपन से ही उनका भी कला के प्रति लगाव हो गया। आशीष जब 4 साल के हुए तो अक्सर दादी का गाना सुनकर नाचने लगते। धीरे-धीरे ये क्रम बन गया। दादी गातीं और आशीष नाचना शुरू कर देते। लाड़ में दादी भी उनकी कमर में चुनरी बांध देतीं और आशीष नाचते रहते। छोटी सी उम्र में ही आशीष मन बना चुके थे कि बड़े होकर एक नामी डांसर बनेंगे।
डांस देखते ही आगबबूला होने लगे दादाआशीष का परिवार सोचता कि वह ये डांस बचपन के खेलकूद के कारण कर रहे हैं, लेकिन जब 12-13 साल की उम्र में भी उन्होंने ऐसा करना नहीं छोड़ा तो परिवार के लोग ही नाराजगी जताने लगे। पहले उनका नाच देखकर तालियां बजाने वाले उनके दादा अब आशीष का डांस देखते ही आगबबूला हो जाते। एक बार तो उन्हें इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपना आपा ही खो दिया और आशीष को थप्पड़ जड़ते हुए भद्दी-भद्दी गालियां दीं। दादा बोले- राजपूतों के घर में न जाने कहां से 'हिजड़ा' पैदा हो गया।
आशीष को श्रीदेवी कहकर चिड़ाते थे पड़ोसीदादा की पिटाई से सहमे 12 साल के आशीष उस दिन खूब रोए, लेकिन ये मार उनके इरादों को डिगा नहीं पाई। समय गुजरने लगा। घर के पास गणेश मंदिर था, उसमें अक्सर कथक का प्रोग्राम होता और आशीष घर लौटने के बाद घंटों तक उसी तरह नाचने की प्रैक्टिस करते। समय गुजरता गया। दादा से मिलने वाली प्रताड़ना अब स्कूल तक पहुंच गई। स्कूल में होने वाली डांस प्रतियोगिता में आशीष पुरस्कार जीतते, लेकिन क्लास के बच्चे उन्हें नचनिया कहकर चिड़ाते। स्कूल से घर लौटते या घर से कहीं जाने के लिए निकलते तो लोग उन्हें 'श्रीदेवी' कहकर संबोधित करते।
गुरु को फीस देने के लिए भी नहीं थे पैसेस्कूल खत्म हो गए और आशीष ने बीएचयू से कथक के बैचलर में एडमिशन ले लिया। कथक में निपुण होने के लिए उन्होंने बिरजू महाराज की शिष्या संगीता सिन्हा को गुरु बना लिया और तालीम लेनी शुरू कर दी, लेकिन तब घर की आर्थिक स्थित ठीक न होने के कारण एक महीने बाद ही वे फीस देने में असमर्थ हो गए। ये बात सीधे जाकर गुरु संगीता सिन्हा को बताई। उनकी लगन देखते हुए गुरु संगीता ने उन्हें बिना फीस के ही सिखाना शुरू कर दिया।
यार अपना जेंडर क्यों चेंज नहीं करा लेतेदादा की बची-खुची कसर रिश्तेदारों ने पूरी की। एक बुजुर्ग रिश्तेदार आए दिन यह कहकर भरी महफिल में ताना देने लगे कि देखो ये लड़का कैसे मटक मटककर चलता है। इनके मां-बाप को भी शर्म नहीं है अपने लड़के को नचनिया बना रहे हैं। इन्हें समझ भी नहीं आता कि इन सब चीजों से जिंदगी नहीं चलने वाली है। अपने साथ हुए एक वाकये का जिक्र करते हुए आशीष बताते हैं... मैं एक बड़े कथक गुरु से तालीम लेने गया। वो मुझे घूंघट की गत (घूंघट वाला कथक) की प्रैक्टिस करा रहे थे। हॉल में सैकड़ों लोग मौजूद थे। अचानक उन्होंने मुझसे कहा कि मैं मंच पर अकेले घूंघट की गत परफॉर्म करूं। मैंने ऐसा ही किया। परफॉर्मेंस खत्म होने के बाद उन्होंने फबती कसते हुए सबके सामने कहा- यार तुम अपना जेंडर चेंज क्यों नहीं करा लेते।
मंदिर में वेश्याओं का नाच क्यों करा रहे हो?अपने साथ हुई एक और घटना का जिक्र करते हुए आशीष बताते हैं वे अक्सर रियाज करने के लिए बनारस के बालाजी मंदिर जाया करते थे। ये वही मंदिर है, जिसकी सीढ़ियों पर बैठकर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां रियाज करते थे। वहां, एक शख्स आते, जो अक्सर मेरी प्रैक्टिस को रुकवा देते। एक दिन मेरे रियाज को देखकर वो पुजारियों पर भड़क गए और बोले- मंदिर में वेश्याओं का नाच क्यों करा रहे हो? उस दिन उन्होंने इतना बखेड़ा खड़ा कर दिया कि पुजारी कई महीनों तक चाहकर भी मुझे कथक प्रैक्टिस करने की इजाजत नहीं दे पाए।
साथी के सुसाइड की खबर से कांप गई रूहकोविडकाल को याद करते हुए आशीष बताते हैं। वो दौर जीते जी मौत के समान था। काम-धाम ठप पड़ा था। आर्थिक तंगी से जूझना पड़ा। मुझे भी लोगों की मदद स्वीकार करनी पड़ी। बांके बिहारी की कृपा से लोगों ने बिना मांगे ही मेरी मदद कर दी, लेकिन मेरे कई कथक डांसर साथियों को भूखे पेट सोना पड़ा। हमारे एक साथी मुंबई में रहकर फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को कथक सिखाते थे। कोविडकाल में वह इतने डिप्रेशन में चले गए कि उन्होंने सुसाइड कर लिया। ऐसी खबरें जब कानों तक पहुंचती थी तो रूह कांप जाती, लेकिन फिर भी इरादों को डगमगाने नहीं दिया।
चीन में नृत्य दिखाकर रोशन किया देश का नाममुश्किलों की भट्टी में तपने के बाद भी आशीष ने हार नहीं मानी और आज देश-विदेश में आशीष का नाम है। आशीष ने 2010 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में बिरजू महाराज के ग्रुप के साथ परफॉर्म किया। वो चीन में हुए द सिल्क रोड इंटरनेशनल आर्ट फेस्टिवल में भी अपनी प्रस्तुति दे चुके हैं। आशीष सोनम महापात्रा के म्यूजिक एल्बम मंगलमान में भी काम कर चुके हैं। वह बीएचयू स्पंदन प्रतियोगिता के विनर रहे हैं। उन्हें संस्कृति मंत्रालय की तरफ से साल 2010 से 2012 तक स्कॉलरशिप भी मिल चुकी है। वर्तमान में आशीष उत्तराखंड के अलग-अलग स्कूलों में बच्चों को कथक सिखाते हैं। आशीष का वृंदावन से विशेष लगाव है, वह खुद को बांके बिहारी का दास बताते हैं। वृंदावन के प्रसिद्ध संतों ने उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें नृत्य मंजरी दास नाम दिया है।
शादी के 8 साल बाद पैदा होने के कारण आशीष सबका दुलारा था। उसके दादा रामप्रसन्न उसे घंटों दुलार करते। आशीष की दादी एक प्रसिद्ध लोक गायिका थीं, लिहाजा बचपन से ही उनका भी कला के प्रति लगाव हो गया। आशीष जब 4 साल के हुए तो अक्सर दादी का गाना सुनकर नाचने लगते। धीरे-धीरे ये क्रम बन गया। दादी गातीं और आशीष नाचना शुरू कर देते। लाड़ में दादी भी उनकी कमर में चुनरी बांध देतीं और आशीष नाचते रहते। छोटी सी उम्र में ही आशीष मन बना चुके थे कि बड़े होकर एक नामी डांसर बनेंगे।
डांस देखते ही आगबबूला होने लगे दादाआशीष का परिवार सोचता कि वह ये डांस बचपन के खेलकूद के कारण कर रहे हैं, लेकिन जब 12-13 साल की उम्र में भी उन्होंने ऐसा करना नहीं छोड़ा तो परिवार के लोग ही नाराजगी जताने लगे। पहले उनका नाच देखकर तालियां बजाने वाले उनके दादा अब आशीष का डांस देखते ही आगबबूला हो जाते। एक बार तो उन्हें इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपना आपा ही खो दिया और आशीष को थप्पड़ जड़ते हुए भद्दी-भद्दी गालियां दीं। दादा बोले- राजपूतों के घर में न जाने कहां से 'हिजड़ा' पैदा हो गया।

आशीष को श्रीदेवी कहकर चिड़ाते थे पड़ोसीदादा की पिटाई से सहमे 12 साल के आशीष उस दिन खूब रोए, लेकिन ये मार उनके इरादों को डिगा नहीं पाई। समय गुजरने लगा। घर के पास गणेश मंदिर था, उसमें अक्सर कथक का प्रोग्राम होता और आशीष घर लौटने के बाद घंटों तक उसी तरह नाचने की प्रैक्टिस करते। समय गुजरता गया। दादा से मिलने वाली प्रताड़ना अब स्कूल तक पहुंच गई। स्कूल में होने वाली डांस प्रतियोगिता में आशीष पुरस्कार जीतते, लेकिन क्लास के बच्चे उन्हें नचनिया कहकर चिड़ाते। स्कूल से घर लौटते या घर से कहीं जाने के लिए निकलते तो लोग उन्हें 'श्रीदेवी' कहकर संबोधित करते।
गुरु को फीस देने के लिए भी नहीं थे पैसेस्कूल खत्म हो गए और आशीष ने बीएचयू से कथक के बैचलर में एडमिशन ले लिया। कथक में निपुण होने के लिए उन्होंने बिरजू महाराज की शिष्या संगीता सिन्हा को गुरु बना लिया और तालीम लेनी शुरू कर दी, लेकिन तब घर की आर्थिक स्थित ठीक न होने के कारण एक महीने बाद ही वे फीस देने में असमर्थ हो गए। ये बात सीधे जाकर गुरु संगीता सिन्हा को बताई। उनकी लगन देखते हुए गुरु संगीता ने उन्हें बिना फीस के ही सिखाना शुरू कर दिया।
यार अपना जेंडर क्यों चेंज नहीं करा लेतेदादा की बची-खुची कसर रिश्तेदारों ने पूरी की। एक बुजुर्ग रिश्तेदार आए दिन यह कहकर भरी महफिल में ताना देने लगे कि देखो ये लड़का कैसे मटक मटककर चलता है। इनके मां-बाप को भी शर्म नहीं है अपने लड़के को नचनिया बना रहे हैं। इन्हें समझ भी नहीं आता कि इन सब चीजों से जिंदगी नहीं चलने वाली है। अपने साथ हुए एक वाकये का जिक्र करते हुए आशीष बताते हैं... मैं एक बड़े कथक गुरु से तालीम लेने गया। वो मुझे घूंघट की गत (घूंघट वाला कथक) की प्रैक्टिस करा रहे थे। हॉल में सैकड़ों लोग मौजूद थे। अचानक उन्होंने मुझसे कहा कि मैं मंच पर अकेले घूंघट की गत परफॉर्म करूं। मैंने ऐसा ही किया। परफॉर्मेंस खत्म होने के बाद उन्होंने फबती कसते हुए सबके सामने कहा- यार तुम अपना जेंडर चेंज क्यों नहीं करा लेते।
मंदिर में वेश्याओं का नाच क्यों करा रहे हो?अपने साथ हुई एक और घटना का जिक्र करते हुए आशीष बताते हैं वे अक्सर रियाज करने के लिए बनारस के बालाजी मंदिर जाया करते थे। ये वही मंदिर है, जिसकी सीढ़ियों पर बैठकर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां रियाज करते थे। वहां, एक शख्स आते, जो अक्सर मेरी प्रैक्टिस को रुकवा देते। एक दिन मेरे रियाज को देखकर वो पुजारियों पर भड़क गए और बोले- मंदिर में वेश्याओं का नाच क्यों करा रहे हो? उस दिन उन्होंने इतना बखेड़ा खड़ा कर दिया कि पुजारी कई महीनों तक चाहकर भी मुझे कथक प्रैक्टिस करने की इजाजत नहीं दे पाए।
साथी के सुसाइड की खबर से कांप गई रूहकोविडकाल को याद करते हुए आशीष बताते हैं। वो दौर जीते जी मौत के समान था। काम-धाम ठप पड़ा था। आर्थिक तंगी से जूझना पड़ा। मुझे भी लोगों की मदद स्वीकार करनी पड़ी। बांके बिहारी की कृपा से लोगों ने बिना मांगे ही मेरी मदद कर दी, लेकिन मेरे कई कथक डांसर साथियों को भूखे पेट सोना पड़ा। हमारे एक साथी मुंबई में रहकर फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को कथक सिखाते थे। कोविडकाल में वह इतने डिप्रेशन में चले गए कि उन्होंने सुसाइड कर लिया। ऐसी खबरें जब कानों तक पहुंचती थी तो रूह कांप जाती, लेकिन फिर भी इरादों को डगमगाने नहीं दिया।
चीन में नृत्य दिखाकर रोशन किया देश का नाममुश्किलों की भट्टी में तपने के बाद भी आशीष ने हार नहीं मानी और आज देश-विदेश में आशीष का नाम है। आशीष ने 2010 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में बिरजू महाराज के ग्रुप के साथ परफॉर्म किया। वो चीन में हुए द सिल्क रोड इंटरनेशनल आर्ट फेस्टिवल में भी अपनी प्रस्तुति दे चुके हैं। आशीष सोनम महापात्रा के म्यूजिक एल्बम मंगलमान में भी काम कर चुके हैं। वह बीएचयू स्पंदन प्रतियोगिता के विनर रहे हैं। उन्हें संस्कृति मंत्रालय की तरफ से साल 2010 से 2012 तक स्कॉलरशिप भी मिल चुकी है। वर्तमान में आशीष उत्तराखंड के अलग-अलग स्कूलों में बच्चों को कथक सिखाते हैं। आशीष का वृंदावन से विशेष लगाव है, वह खुद को बांके बिहारी का दास बताते हैं। वृंदावन के प्रसिद्ध संतों ने उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें नृत्य मंजरी दास नाम दिया है।
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