प्रत्येक शब्द की ध्वनि एक सूक्ष्म ऊर्जा है। जब कोई व्यक्ति कुछ बोलता या गाता है, तो उसके द्वारा उत्पन्न ध्वनियां वायु में तरंगों के रूप में फैलती हैं। यही तरंगें सूक्ष्म कंपन उत्पन्न करती हैं, जिनका प्रभाव न केवल कानों से सुनाई देने तक सीमित होता है, बल्कि वे वातावरण, मन और पदार्थ, तीनों पर असर डालती हैं।   
   
प्राचीन ऋषियों ने कहा था कि “शब्द ही ब्रह्म है”, अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि शब्द या नाद से ही उत्पन्न हुई है। यही नाद जब स्थूल रूप में व्यक्त होता है, तो उसे हम ‘ध्वनि’ कहते हैं। ध्वनि की यही कंपनशील शक्ति पदार्थों में गति और रूप उत्पन्न करती है।
     
बीते समय में जब ग्रामोफोन का आविष्कार हुआ, तो यह सिद्ध हुआ कि एक गीत या वाणी की तरंगें केवल हवा में ही नहीं गूंजतीं, बल्कि उन्हें ठोस माध्यम, जैसे रिकॉर्ड की डिस्क, पर भी अंकित किया जा सकता है। रिकॉर्ड पर बनी अदृश्य सी रेखाएँ वस्तुतः उन कंपन तरंगों के अंकन हैं। जब सुई उन रेखाओं पर घूमती है, तो वही मूल शब्द, संगीत और भाव पुनः जीवित हो उठते हैं। यह इस तथ्य का प्रमाण है कि हर शब्द का अपना एक विशिष्ट कंपन और आकार होता है।
     
वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसे प्रमाणित किया गया। फ्रांस के एक वैज्ञानिक ने एक ऐसा यंत्र बनाया जो ध्वनि के कंपन को दृश्य रूप में प्रदर्शित करता था। जब किसी व्यक्ति ने उस यंत्र के सामने कोई गीत या प्रार्थना गाई, तो ध्वनि तरंगों के प्रभाव से पर्दे पर रखे रेत के कण हिलने लगे और एक निश्चित आकृति बनाने लगे। अद्भुत यह कि जब एक व्यक्ति ने कालभैरव स्तुति गाई, तो रेत के कणों ने अपने आप कालभैरव का स्वरूप बना दिया।
   
इस प्रयोग से यह स्पष्ट हुआ कि हर शब्द और मंत्र की अपनी एक आकृति, रंग और ऊर्जा होती है। जब हम कोई शब्द बोलते हैं, तो वह केवल वायु में नहीं खो जाता, बल्कि सूक्ष्म जगत में एक रूप, एक छाप बना देता है। इसी सिद्धांत के आधार पर प्राचीन भारत में मंत्र विज्ञान विकसित हुआ, जहां हर अक्षर को एक विशिष्ट देवत्व, कंपन और फल से जोड़ा गया। आज भी यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष भाव से, श्रद्धा या प्रेम से कोई शब्द उच्चारित करता है, तो वह शब्द उसकी चेतना और वातावरण दोनों को परिवर्तित कर सकता है। यही कारण है कि प्रार्थना, जप या स्तुति आदि धार्मिक क्रिया कंपन-आधारित ऊर्जा प्रयोग हैं, जो मनुष्य के भीतर और बाहर दोनों में सामंजस्य और शक्ति उत्पन्न करते हैं।
  
प्राचीन ऋषियों ने कहा था कि “शब्द ही ब्रह्म है”, अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि शब्द या नाद से ही उत्पन्न हुई है। यही नाद जब स्थूल रूप में व्यक्त होता है, तो उसे हम ‘ध्वनि’ कहते हैं। ध्वनि की यही कंपनशील शक्ति पदार्थों में गति और रूप उत्पन्न करती है।
बीते समय में जब ग्रामोफोन का आविष्कार हुआ, तो यह सिद्ध हुआ कि एक गीत या वाणी की तरंगें केवल हवा में ही नहीं गूंजतीं, बल्कि उन्हें ठोस माध्यम, जैसे रिकॉर्ड की डिस्क, पर भी अंकित किया जा सकता है। रिकॉर्ड पर बनी अदृश्य सी रेखाएँ वस्तुतः उन कंपन तरंगों के अंकन हैं। जब सुई उन रेखाओं पर घूमती है, तो वही मूल शब्द, संगीत और भाव पुनः जीवित हो उठते हैं। यह इस तथ्य का प्रमाण है कि हर शब्द का अपना एक विशिष्ट कंपन और आकार होता है।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसे प्रमाणित किया गया। फ्रांस के एक वैज्ञानिक ने एक ऐसा यंत्र बनाया जो ध्वनि के कंपन को दृश्य रूप में प्रदर्शित करता था। जब किसी व्यक्ति ने उस यंत्र के सामने कोई गीत या प्रार्थना गाई, तो ध्वनि तरंगों के प्रभाव से पर्दे पर रखे रेत के कण हिलने लगे और एक निश्चित आकृति बनाने लगे। अद्भुत यह कि जब एक व्यक्ति ने कालभैरव स्तुति गाई, तो रेत के कणों ने अपने आप कालभैरव का स्वरूप बना दिया।
इस प्रयोग से यह स्पष्ट हुआ कि हर शब्द और मंत्र की अपनी एक आकृति, रंग और ऊर्जा होती है। जब हम कोई शब्द बोलते हैं, तो वह केवल वायु में नहीं खो जाता, बल्कि सूक्ष्म जगत में एक रूप, एक छाप बना देता है। इसी सिद्धांत के आधार पर प्राचीन भारत में मंत्र विज्ञान विकसित हुआ, जहां हर अक्षर को एक विशिष्ट देवत्व, कंपन और फल से जोड़ा गया। आज भी यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष भाव से, श्रद्धा या प्रेम से कोई शब्द उच्चारित करता है, तो वह शब्द उसकी चेतना और वातावरण दोनों को परिवर्तित कर सकता है। यही कारण है कि प्रार्थना, जप या स्तुति आदि धार्मिक क्रिया कंपन-आधारित ऊर्जा प्रयोग हैं, जो मनुष्य के भीतर और बाहर दोनों में सामंजस्य और शक्ति उत्पन्न करते हैं।
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