जोधपुर, 04 नवम्बर (Udaipur Kiran) . Rajasthan हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में मृतक डिस्ट्रिक्ट जज बीडी सारस्वत के परिवार को राहत देते हुए उनकी बर्खास्तगी के आदेश को रद्द कर दिया है और स्व. सारस्वत के पक्ष में फैसला सुनाते हुए बर्खास्तगी से सेवानिवृत्ति तिथि तक पूर्ण वेतन, सेवा निरंतरता, पेंशन व सभी लाभ परिवार को देने के आदेश दिए हैं. जस्टिस मुन्नूरी लक्ष्मण और जस्टिस बिपिन गुप्ता की डिवीजन बेंच ने सुनाए फैसले में कहा कि जांच रिपोर्ट विकृत साक्ष्यों पर आधारित थी. बेंच ने 15 साल पुरानी रिट याचिका पर फैसला दिया जिसे हाईकोर्ट ने 8 अगस्त को सुरक्षित रखा था.
दरअसल स्व. बीडी सारस्वत प्रतापगढ़ में NDPS ACT के विशेष न्यायालय में स्पेशल जज थे. वर्ष 2004-05 में एक आरोपी की तीसरी जमानत याचिका स्वीकार करने पर उन पर अवैध उद्देश्यों से दी गई जमानत का आरोप लगा. जांच में दोषी ठहराए जाने पर 2010 में उन्हें बर्खास्त कर दिया गया. याचिकाकर्ता की 2012 में मृत्यु के बाद पत्नी और बच्चों (अमित व मधु सारस्वत) ने केस लड़ा. वकील अशोक कुमार ने शिकायत की कि बीडी सारस्वत ने आरोपी पारस की जमानत याचिकाओं को 6 अक्टूबर 2004 और 2 दिसंबर 2004 को खारिज किया, लेकिन जब वकील कला आर्या ने तीसरी जमानत याचिका दायर की, तो 24 फरवरी 2005 को जमानत स्वीकार कर ली. शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि यह जमानत अवैध उद्देश्यों से दी गई थी.
मुख्य न्यायाधीश ने ए सितंबर 2005 को जस्टिस एनपी गुप्ता को जांच अधिकारी नियुक्त किया. जांच अधिकारी ने 6 मार्च 2009 को रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि आरोप सिद्ध हो गया है. फुल कोर्ट ने 2 फरवरी 2010 को रिपोर्ट स्वीकार कर बर्खास्तगी की सिफारिश की. राज्य सरकार ने 8 अप्रैल 2010 को बर्खास्तगी का आदेश जारी किया. याचिकाकर्ता की कार्यवाही के दौरान 26 मई 2012 को मृत्यु हो गई. उनकी पत्नी और उनकी मृत्यु के बाद दो बच्चों अमित सारस्वत और मधु सारस्वत ने केस लड़ा. दोनों बीकानेर के जय नारायण व्यास कॉलोनी निवासी हैं. वरिष्ठ एडवोकेट एमएस सिंघवी ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने 5 फरवरी 2010 को जवाब दिया था, लेकिन फुल कोर्ट पहले ही 2 फरवरी को बर्खास्तगी की सिफारिश कर चुका था. राज्यपाल ने इस जवाब पर विचार नहीं किया. सुनवाई का अवसर नहीं देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन था. राज्य की ओर से वरिष्ठ एडवोकेट (एएजी) राजेश पंवार और सीनियर एडवोकेट जीआर पुनिया ने जवाब दिया.
कोर्ट ने कहा कि जांच अधिकारी के निष्कर्ष विकृत हैं और कोई भी विवेकशील व्यक्ति रिकॉर्ड पर साक्ष्य के आधार पर ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता. दोषी अधिकारी के पास वैधानिक जमानत देने के अलावा कोई विवेक नहीं था. वकील बदलने पर जमानत देना किसी अवैध उद्देश्य से प्रेरित नहीं माना जा सकता. कोर्ट ने 6 मार्च 2009 के जांच अधिकारी के आदेश, 2 फरवरी 2010 के फुल कोर्ट के प्रस्ताव और 8 अप्रैल 2010 के राज्यपाल के आदेश को रद्द कर दिया. याचिकाकर्ता की जन्म तिथि 2 फरवरी 1951 थी और वे 28 फरवरी 2011 को सेवानिवृत्त हो गए होते. कोर्ट ने निर्देश दिया कि 8 अप्रैल 2010 से 28 फरवरी 2011 की अवधि के लिए पूर्ण बकाया वेतन का भुगतान किया जाए, साथ ही सेवा की निरंतरता और पेंशन लाभों सहित सभी परिणामी लाभ प्रदान किए जाएं. याचिकाकर्ता को काल्पनिक बहाली मानी जाएगी और पेंशन लाभ परिवार को दिए जाएंगे.
(Udaipur Kiran) / सतीश
You may also like

ऐतिहासिक कृति 'पद्यांजली' भारत के साहित्यिक पुनर्जागरण की पहचान : डॉ संतोष शुक्ल

अस्पताल में महिला की लॉकेट चोरी करने वाला आरोपित 24 घंटे में गिरफ्तार

राजगढ़ःछत से गिरने पर बुजुर्ग की संदिग्ध मौत, परिजनों से पूछताछ जारी

अ.भा.कालिदास समारोह: चौथे दिन भी सम्पन्न हुए सारस्वत एवं सांस्कृतिक आयोजन

वन अधिकार दावों के निराकरण में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएं : मंत्री डॉ. शाह





