100 years of RSS: आज से 100 साल पहले 1925 में विजयादशमी के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में एक दीपक प्रज्वलित हुआ था, जो अब एक विराट प्रकाशपुंज बन चुका है। संघ की यह यात्रा चरित्र निर्माण, राष्ट्र प्रथम के सिद्धांत और सामाजिक समरसता के प्रति अटूट समर्पण की कहानी है। हालांकि विरोधी संघ पर सांप्रदायिकता फैलाने के आरोप भी लगाते हैं। संघ के पहले सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराज हेडगेवार ने नागपुर में आरएसएस की स्थापना की थी। डॉ. हेडगेवार ने संघ के लिए संगठनात्मक आधार तैयार किया तो गुरु गोलवलकर ने इसे एक सुसंगठित और स्पष्ट वैचारिक ढांचा प्रदान किया, जिसने हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को इसके मूल में रखा। जानकारी के मुताबिक वर्तमान में आरएसएस की 83 हजार से ज्यादा शाखाएं हैं और एक करोड़ से ज्यादा स्वयंसेवक हैं।
डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्र और हिन्दुत्व को हमेशा केंद्र में रखा। उनका मानना था कि व्यक्ति, समाज और संगठन सबका अंतिम लक्ष्य राष्ट्र की सेवा और उन्नति होना चाहिए। देश को स्वतंत्र, संगठित और आत्मनिर्भर बनाना ही जीवन का परम कर्तव्य है। हिन्दुत्व को लेकर भी उन्होंने कहा- हिन्दुत्व कोई संकीर्ण धार्मिक परिभाषा नहीं, बल्कि भारत की आत्मा है। यह संस्कृति, परंपरा, जीवन मूल्य और राष्ट्र की चेतना का समन्वय है। वे हिन्दुत्व को एक 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' मानते थे, जो सबको जोड़ने वाली शक्ति है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी 100 वर्ष की यात्रा में कई उतार चढ़ाव देखे हैं। संघ ने तीन बार अलग-अलग समय पर प्रतिबंध भी झेले हैं, लेकिन यात्रा सतत जारी है। इस यात्रा को बड़े मुकाम तक पहुंचाने में यूं तो हर स्वयंसेवक का परिश्रम है, लेकिन हम बात करेंगे उन 6 प्रमुख शख्सियतों के बारे में, जिन्होंने समय-समय पर आरएसएस की कमान संभाली। आइए जानते हैं उन्हीं व्यक्तियों के बारे में....
डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का श्रेय डॉ. हेडगेवार को जाता है, जिन्होंने 1925 में नागपुर में इसकी स्थापना की। स्थापना के समय उनका उद्देश्य संगठित समाज, युवा पीढ़ी में अनुशासन और राष्ट्रपति तथा हिन्दुत्व के आधार पर समाज को एकजुट करना था। उनका मानना था कि भारत को परम वैभव पर पहुंचाने के लिए हिंदू समाज को संगठित और संस्कारित करना आवश्यक है। राष्ट्रभक्ति केवल भावना नहीं, बल्कि अनुशासन और कर्म से जुड़ी हुई साधना है। देश सर्वोपरि और हिन्दुत्व उसकी आत्मा है। इसी विचार के साथ उन्होंने आरएसएस की नींव रखी।
डॉ. हेडगेवार पहली बार 1925 से 1940 (मृत्युपर्यंत) तक सरसंघचालक रहे। बीच में बहुत ही अल्प समय के लिए लक्ष्मण वासुदेव परांजपे ने भी यह जिम्मेदारी निभाई। एक अप्रैल, 1889 को नागपुर (महाराष्ट्र) में जन्मे हेडगेवार ने कलकत्ता (अब कोलकाता) से चिकित्सा की पढ़ाई की। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया। वह क्रांतिकारी गतिविधियों में भी सक्रिय रहे। कलकत्ता में पढ़ाई के दौरान 'अनुशीलन समिति' जैसी क्रांतिकारी संस्थाओं से जुड़े। नागपुर लौटने के बाद वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सक्रिय रहे और विदर्भ प्रांतीय कांग्रेस के सचिव भी बने। उन्होंने असहयोग आंदोलन (1921) में भाग लिया और उन्हें एक साल के लिए जेल भी हुई थी। उन्होंने 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में 'पूर्ण स्वतंत्रता' को लक्ष्य बनाने का प्रस्ताव भी रखा था, जो उस समय पारित नहीं हो सका था।
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर : गोलवकर जिन्हें उनके अनुयायी श्रद्धापूर्वक 'गुरुजी' के नाम से भी जानते हैं, आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक और एक प्रमुख विचारक थे। वे करीब 33 साल (1940-1973) तक संघ के सरसंघचालक रहे, जो कि अब तक का सर्वाधिक कार्यकाल है। हेडगेवार के निधन के बाद 3 जुलाई 1940 को उन्हें आरएसएस का सरसंघचालक नियुक्त किया गया। उनका विचार था कि भारत की पहचान उसकी हिंदू संस्कृति में निहित है और राष्ट्र के उत्थान के लिए समाज में एकता, अनुशासन और देशभक्ति का भाव अत्यंत आवश्यक है। उनके मार्गदर्शन में ही समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संघ से प्रेरित अनेक संगठनों की स्थापना हुई।
गोलवलकर का जन्म 19 फरवरी, 1906 में रामटेक (महाराष्ट्र) में हुआ था। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) से विज्ञान में मास्टर डिग्री (M.Sc. जीव विज्ञान) प्राप्त की और वहां कुछ समय के लिए अध्यापन कार्य भी किया। इसी कारण उन्हें 'गुरुजी' कहा जाने लगा। उनकी दो प्रसिद्ध पुस्कतें भी हैं- वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड और बंच ऑफ थॉट्स (भाषणों और लेखों का संकलन) हैं। उन्होंने भारत में रहने वाले गैर-हिंदू समुदायों, विशेषकर मुस्लिमों और ईसाइयों, को 'आंतरिक खतरा' बताया था। उनका मानना था कि इन समुदायों को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को पूरी तरह से अपनाना होगा या फिर उन्हें 'कोई विशेषाधिकार न मांगते हुए और बिना किसी भेदभाव के' रहना होगा।
मधुकर दत्तात्रेय देवरस : आरएसएस के तीसरे सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस के नाम से भी जाना जाता है। गुरु गोलवलकर के निधन के बाद 5 जून, 1973 को उन्होंने यह दायित्व संभाला। 11 मार्च 1994 तक वे इस पद पर रहे, जो कि दूसरा सबसे बड़ा कार्यकाल है। बालासाहेब देवरस का 21 वर्षों का कार्यकाल RSS के इतिहास में महत्वपूर्ण परिवर्तन और विस्तार का दौर था। उन्होंने छुआछूत को खत्म करने पर विशेष जोर दिया। 1974 में पुणे उन्होंने कहा था- 'यदि अस्पृश्यता गलत नहीं है, तो दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है।' उनके कार्यकाल में ही सामाजिक सेवा कार्यों के लिए सेवा भारती संगठन की स्थापना हुई।
1975 में देश में आपातकाल के दौरान RSS पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। देवरस ने जेल में रहते हुए भी कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन किया और संघ ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन का भी सक्रिय रूप से समर्थन किया। उन्होंने युवाओं के बीच काम करने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और मजदूरों के बीच कार्यरत भारतीय मजदूर संघ जैसे सहयोगी संगठनों के विस्तार को प्रोत्साहित किया। 1993 में आर्थिक उदारीकरण का विरोध करने के लिए स्वदेशी जागरण मंच की भी स्थापना की। उनके कार्यकाल में ही संघ के राजनीतिक सहयोगी संगठन जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ और बाद में भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ।
प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह 'रज्जू भैया' : प्रो. प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह, जिन्हें प्यार से 'रज्जू भैया' के नाम से जाना जाता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचालक थे। रज्जू भैया पहले गैर ब्राह्मण और गैर मराठी सरसंघचालक थे। हालांकि उनका कार्यकाल सबसे कम (6 साल) रहा। यूपी के बुलंदशहर जिले के बनैल में 29 जनवरी, 1922 जन्मे रज्जू भैया ने स्वास्थ्य कारणों से पद छोड़ा था। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर तथा तथा विभागाध्यक्ष रहे। नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमन भी उनकी प्रतिभा से प्रभावित थे। 1966 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद से इस्तीफा दे दिया और संघ के लिए पूर्णकालिक प्रचारक बन गए।
आपातकाल के दौरान उन्होंने भूमिगत रहते हुए आंदोलन का संचालन किया। उन्होंने देश के गांव-गांव तक तक संघ के कार्य को पहुंचाने पर विशेष बल दिया और ग्रामीण विकास गतिविधियों पर भी ध्यान केंद्रित किया। वह अपनी सादगी, स्पष्टवादिता और सभी राजनीतिक विचारधाराओं के नेताओं के साथ अच्छे संबंध रखने के लिए जाने जाते थे। उनके सम्मान में प्रयागराज (इलाहाबाद) में एक विश्वविद्यालय का नाम प्रोफेसर राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) विश्वविद्यालय रखा गया है।
केएस सुदर्शन : रज्जू भैया के बाद कुप्पाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन यानी केएस सुदर्शन संघ के पांवचें सरसंघचालक बने। 18 जून, 1931 वर्तमान छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्मे सुदर्शन ने मात्र 9 साल की उम्र में संघ की शाखा में भाग लेना शुरू कर दिया था और 1954 में इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त करने के तुरंत बाद 23 साल की उम्र में पूर्णकालिक प्रचारक बन गए। वह कई भारतीय भाषाओं, जैसे कन्नड़, तमिल, हिंदी और अंग्रेजी के ज्ञाता थे और उन्हें अनेक विषयों, जैसे विज्ञान, अध्यात्म, अर्थशास्त्र और पर्यावरण का गहरा ज्ञान था। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान स्वदेशी और आर्थिक संप्रभुता पर विशेष जोर दिया गया। उन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा पर बल दिया। सुदर्शन ने लंबे समय तक संघ के कार्यकर्ता के रूप में पूर्वोत्तर राज्यों में काम किया, जहां उन्होंने सीमा पार से अवैध घुसपैठ और राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया। 2009 में स्वास्थ्य कारणों से उन्होंने पद छोड़ दिया था।
डॉ. मोहनराव मधुकरराव भागवत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छठे सरसंघचालक हैं मोहन भागवत, जो कि 2009 से इस पद पर कार्यरत हैं। 1975 के अंत में वे आरएसएस के पूर्णकालिक प्रचारक बन गए। मोहन भागवत एक ऐसे परिवार से आते हैं जो कई पीढ़ियों से RSS से जुड़ा रहा है। उनके पिता, मधुकर राव भागवत, चंद्रपुर के स्वयंसेवक और बाद में गुजरात के प्रांत प्रचारक रहे। भागवत ने आपातकाल के दौरान भूमिगत रहकर काम किया। वे सबसे कम आयु के सरसंघचालक हैं, जिन्होंने 59 वर्ष की आयु में यह पद संभाला है। उन्हें दूरदर्शी और व्यावहारिक नेता माना जाता है, जिन्होंने संघ को आधुनिक संदर्भों में प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उसमें कई वैचारिक और संगठनात्मक बदलावों का नेतृत्व किया है। उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों- जैसे मुस्लिम, दलित आदि के बीच संवाद स्थापित करने पर जोर दिया, विभिन्न मंचों से सामाजिक सद्भाव और समरसता का संदेश दिया।
भागवत का स्पष्ट मत है कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति सांस्कृतिक रूप से हिंदू है, भले ही उसकी पूजा पद्धति कुछ भी हो। उन्होंने 'भारतीयता' और 'हिंदुत्व' को एक-दूसरे का पर्याय बताया है। भागवत ने बार-बार कहा है कि संघ का उद्देश्य भारत के सभी समुदायों को राष्ट्र के धागे में एकजुट करना है, न कि किसी को अलग करना। उन्होंने समलैंगिक (LGBTQ+) समुदाय के अस्तित्व को जैविक और प्राकृतिक माना है। उनका मानना है कि इस समुदाय को भी समाज का हिस्सा मानते हुए उनका समावेश होना चाहिए, जो संघ के पारंपरिक रुख से एक बड़ा बदलाव है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि RSS एक सांस्कृतिक संगठन है, जो राजनीति से सीधे जुड़ा नहीं है, लेकिन राष्ट्रनीति (राष्ट्रीय हित के मामले) से उसका संबंध हमेशा रहेगा। उन्होंने कहा- संघ बीजेपी को सलाह या मार्गदर्शन तो दे सकता है, लेकिन सरकारी नीतियों का निर्धारण सीधे तौर पर नहीं करता है।
संघ की 100 वर्षों की यात्रा महज इतिहास का लेखा-जोखा नहीं है, 1925 में शुरू हुई यह यात्रा आज एक ऐसे विशाल संगठन में परिणत हो चुकी है जो भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सबसे बड़ा संवाहक है। इस संगठन ने प्राकृतिक आपदा हो या सामाजिक चुनौती, स्वयंसेवकों के माध्यम से हमेशा राष्ट्र प्रथम के भाव से कार्य किया। डॉ. हेडगेवार ने व्यक्ति निर्माण की नींव डाली और गुरु गोलवलकर ने संघ को वैचारिक दृढ़ता दी, वहीं वर्तमान नेतृत्व इसे संवाद, समरसता और समावेशी भारतीयता के आधुनिक मंच पर ले जा रहा है। हालांकि संघ का भविष्य इस बात पर भी निर्भर करेगा कि वह 21वीं सदी की चुनौतियों- तेजी से बदलती तकनीक और समाज में बढ़ती विषमता का सामना किस तरह करता है।
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